हलाला प्रथा क्या है? क्या है हलाला? और इसकी वो सच्चाई जो इस्लाम के दुशमन आपको नहीं बताते है वो हम इस लेख में बताने वाले है | Halala Kya Hai? Aur Halal Ki Haisiyat Kya Hai ISLAM Mein
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इस लेख को 7 हिस्से में बाटा गया है:-
Halala Kya Hai
तलाक़ कोई खेल नहीं है:-
यूं तो तलाक़ कोई अच्छी चीज़ नहीं है। और सभी लोग इसको ना पसंद करते हैं। इस्लाम में भी यह एक बुरी बात समझी जाती है। लेकिन इसका मतलब यह हरगिज़ नहीं कि तलाक़ का हक ही इंसानों से छीन लिया जाए ।तलाक़ के इस प्रावधान को अन्तिम और अपरिहार्य (Inevitable) समाधान के रूप में ही उपयोग किया जा सकता है।
परन्तु इस्लाम के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (स.) ने यह भी स्पष्ट कर दिया है। कि हलाल कामों में सबसे अधिक नापसन्दीदा काम तलाक़ है।
"अल्लाह के नज़दीक हलाल चीज़ों में सबसे ज़्यादा नापसन्दीदा चीज़ तलाक़ है।'' (हदीस)
पति-पत्नी में अगर किसी तरह भी निबाह नहीं हो पा रहा है तो अपनी ज़िदगी नरक बनाने से बेहतर है। कि वो अलग हो कर अपनी ज़िन्दगी का सफ़र अपनी मर्ज़ी से पूरा करें। जो कि, इंसान होने के नाते उनका हक है। इसी लिए दुनियां भर के कानून में तलाक़ की गुंजाइश मौजूद है।
और इसीलिये पैगम्बरों के दीन (धर्म) में भी तलाक़ की गुंजाइश हमेशा से रही है। दीने इब्राहीम की रिवायात के मुताबिक अरब जाहिलियत के दौर में भी तलाक़ से अनजान नहीं थे। उनका इतिहास बताता है। कि तलाक़ का कानून उनके यहाँ भी लगभग वही था। जो अब इस्लाम में है लेकिन कुछ बिदअतें (अपनी तरफ से मिलावट) उन्होंने इसमें भी दाखिल कर दी थी।
तलाक़शुदा औरत की परेशानियों का समाधान:-
तलाक़ का विरोध करने वालों का सबसे बड़ा तर्क यही है कि तलाक़ के बाद औरत की स्थिति अति दयनीय हो जाती है, समाज उसे बुरी निगाह से देखता है और उसका कोई सहारा नहीं होता। यह तर्क लोगों में औरत के प्रति सहानुभूति एवं भावुकता तो उत्पन्न कर सकता है, परन्तु उसको एक असफल वैवाहिक जीवन के कष्टों से छुटकारा नहीं दिला सकता। इस्लाम एक संपूर्ण जीवन व्यवस्था है और इसमें औरत को इस दयनीय स्थिति से बचाने का प्रावधान तलाक़ की अनुमति देने से पूर्व ही कर दिया गया है-
(1) तलाक़ के उपरांत एक स्त्री दूसरा विवाह करने के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्रा है, उसे इससे रोकने का अधिकार किसी को भी नहीं है। यह इस्लाम की विशेषता है जो अन्य धर्मों में नहीं पाई जाती।
(2) तलाक़ के बाद एक औरत दर-दर की ठोकरें नहीं खाती। वो अपने मायके वापस चली जाती है और उसके भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी मायकों वालों की होती है।
(3) दाम्पत्य जीवन में पति उपहार के रूप में जो कुछ भी पत्नी को देता है, चाहे वो धन हो, गहने हों, कोई अन्य सामग्री हो या घर हो, वो पत्नी की संपत्ति होती है और तलाक़ के पूर्व अथवा उपरांत उसे वापस नहीं किया जा सकता।
(4) इस्लामी विरासत का क़ानून एक स्त्री को उसके माता-पिता, भाई-बहन एवं अन्य रिश्तेदारों की धन-संपत्ति से एक निश्चित हिस्सा दिलाता है, जो क़ुरआन में सविस्तार निर्धारित कर दिया गया है। यह हिस्सा उसका अधिकार है और उसे कोई भी इससे वंचित नहीं कर सकता।
(5) इस्लाम ने एक से अधिक पत्नी की अनुमति देकर समाज में स्त्री के अविवाहित (तलाक़ के उपरांत भी) रह जाने को बहुत हद तक समाप्त कर दिया है।
ये तो सत्य है कि तलाक़ से एक स्त्री को कठोर मानसिक आघात लगता है और उसके जीवन की गाड़ी पटरी से उतर जाती है, परन्तु इस्लाम के इन प्रावधानों से वह शीघ्र ही उन पर क़ाबू पा सकती है और अपनी जीवन रूपी गाड़ी को पुनः पटरी पर डाल सकती हैं और समाज के निर्माण में अपनी पूरी भूमिका निभा सकती है।
जिस प्रकार शरीर के स्वास्थ्य के लिए कभी-कभी उसका ऑपरेशन आवश्यक हो जाता है और जिसे किसी भी प्रकार से मरीज़ पर अत्याचार नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार समाज के स्वास्थ्य के लिए भी कभी-कभी परिवार का ऑपरेशन आवश्यक हो जाता है और इसे किसी भी प्रकार से स्त्री पर अत्याचार या शोषण के रूप में नहीं लिया जा सकता। समाज ने इसकी आवश्यकता हमेशा महसूस की है और जिन धर्मों में इसका प्रावधान नहीं था, उन्होंने भी किसी न किसी रूप में इसे अपने यहां सम्मिलित कर लिया है।
Note: पैगम्बर मुहम्मद सल्ल० की अक्सर पत्नियाँ विधवा या तलाकशुदा थी, और उन्होंने अपने अनुयायी को ऐसा करने का आदेश दिए। कब 1400 वर्ष पूर्व? जब विधवा या तलाकशुदा औरत को एक कलंक के रूप में देखा जाता था। और तो और पैगम्बर मुहम्मद सल्ल०, विधवा या यतीम की सहायता करना करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित किए।
इस्लाम मे तलाक का सही तरीका:-
Note: (तलाक़-तलाक़-तलाक़ Triple Talaq) एक समय में तीन तलाक़ देना इस्लाम में मान्य नहीं है।
किसी जोड़े में तलाक की नौबत आने से पहले हर किसी की यह कोशिश होनी चाहिए। कि जो रिश्ते की डोर एक बार बन्ध गई है। उसे मुमकिन हद तक टूटने से बचाया जाए। जब किसी पति पत्नी का झगड़ा बढ़ता दिखाई दे, तो अल्लाह ने कुरआन में उनके करीबी रिश्तेदारों और उनका भला चाहने वालों को यह हिदायत दी है। कि वो आगे बढ़ें और मामले को सुधारने की कोशिश करें।
इसका तरीका कुरआन ने यह बतलाया है। कि एक फैसला करने वाला पति के खानदान में से मुकर्रर करें, और एक फैसला करने वाला पत्नी के खानदान में से चुने। और वो दोनों जज मिल कर उनमे सुलह कराने की कोशिश करें। इससे उम्मीद है कि जिस झगड़े को पति पत्नी नहीं सुलझा सके वो खानदान के बुज़ुर्ग और दूसरे हमदर्द लोगों के बीच में आने से सुलझ जाए।
कुरआन ने इसे कुछ यूं बयान किया है:- "और अगर तुम्हे पति पत्नी में फूट पड़ जाने का अंदेशा हो तो एक हकम (जज) मर्द के लोगों में से और एक औरत के लोगों में से मुक़र्रर कर दो। अगर पति-पत्नी दोनों सुलह चाहेंगे तो अल्लाह उनके बीच सुलह करा देगा। बेशक अल्लाह सब कुछ जानने वाला और सब की खबर रखने वाला है।" (कुरआन सूरह अन- निसा 35)
"तलाक़ दो बार है। फिर सामान्य नियम के अनुसार (स्त्री को) रोक लिया जाए या भले तरीक़े से विदा कर दिया जाए। और तुम्हारे लिए वैध नहीं है कि जो कुछ तुम उन्हें दे चुके हो, उसमें से कुछ ले लो, सिवाय इस स्थिति के कि दोनों को डर हो कि अल्लाह की (निर्धारित) सीमाओं पर क़ायम न रह सकेंगे तो यदि तुमको यह डर हो कि वे अल्लाह की सीमाओ पर क़ायम न रहेंगे तो स्त्री जो कुछ देकर छुटकारा प्राप्त करना चाहे उसमें उन दोनो के लिए कोई गुनाह नहीं। यह अल्लाह की सीमाएँ है। अतः इनका उल्लंघन न करो। और जो कोई अल्लाह की सीमाओं का उल्लंघन करे तो ऐसे लोग अत्याचारी है" [सूरह बक़रह; आयत 229]
इस आयत में तलाक़ देने का सही ढंग सिखाया गया है और वह यह है, कि पत्नी की पवित्रता की अवस्था में पति एक तलाक़ दे। इसके बाद तीन मासिक धर्म (three menstrual cycles),
जो इद्दत का समय है, बीतने पर पति-पत्नी का सम्बन्ध टूट जाएगा और वही स्त्री किसी दुसरे से विवाह कर सकेगी।
तीन महीने के अंतराल में यदि ये फिर से वापस आना चाहें तो आ सकते हैं।
*यह एक वापस ली जाने वाली तलाक़ है। ऐसी तलाक़ केवल दो बार हो सकती है, जिस का ढंग यह है:-
१। यदि पति तलाक़ दे तो इद्दत (तीन मासिक धर्म अर्थात तीन महीने) के अन्दर रुजूअ हो सकता है।
यदि इद्दत बीत जाए और रुजू न करे तो नए महर के साथ ही नया निकाह संभव है। यदि इस निकाह के
बाद फिर किसी कारण से तलाक़ हो जाए तो निश्चित इद्दत के अन्दर वे रुजूअ कर सकते हैं।
यदि यह इद्दत भी बीत जाए तथा रुजू न करें तो नए महर के साथ ही नया विवाह हो सकता है।
२। परन्तु यदि फिर तीसरी बार तलाक़ दे तो यह तलाक़ अंतिम होगी। अब वे इद्दत के अन्दर रुजूअ नहीं कर सकते और ना ही इद्दत के बाद नए महर के साथ नया विवाह हो सकता है। हाँ, यदि वह स्त्री किसी अन्य पुरुष से विवाह करले और वह पति स्वयं मर जाए या उसे तलाक़ दे, तो ही पहले पति से फिर विवाह संभव है और वह भी ज़बरदस्ती नहीं। लेकिन यहाँ एक बात का ध्यान दें कि दूसरा पति किसी निर्धारित योजना के अधीन स्त्री को तलाक़ दे ताकी वह स्त्री पहले पति से विवाह कर सके, यह इस्लाम में हराम है और हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने फरमाया है कि ऐसे पुरुष पर अल्लाह का अभिशाप (लानत) है। जिस हलाला की आप बात कर रहे हैं वह इस्लाम में जायज़ है ही नहीं।
हिन्दू धर्म और तलाक़-
हिन्दू धर्म मे तलाक नाम का कोई शब्द ही नही ये अरबी शब्द है"
हिन्दू विवाह अधिनियम,1955 के अनुसार विशेष स्थितियों में, यथा दुष्ट स्वभाव, मूर्ख, व्यभिचारी, नामर्द होने
पर स्त्री अपने पति को तलाक़ दे सकती है। लेकिन हिन्दू धर्म में तलाक़ का कोई प्रावधान नहीं है।
इस्लाम से ही प्रभावित होकर हिन्दू समाज ने भी तलाक के परावधान को अपना लिया। पति चाहे दुष्ट
स्वभाव वाला, मूर्ख, जुआरी, शराबी और रोगी हो तब भी हिन्दू धर्म के अनुसार स्त्री उसे नहीं छोड़ सकती।
उसे अपने ही पति के साथ जीना और मरना है।
खुला क्या है?:-
इस्लाम ने मर्दों की तरह औरतों को भी यह अधिकार दिया है कि यदि वह अपने पति के साथ वैवाहिक जीवन को समाप्त करना चाहती है तो यह उसका अधिकार है। वह ऐसा बिलकुल कर सकती है और पति के इच्छा होने या ना होने का इस पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
बल्कि औरतों को जो अधिकार है वह मर्दों के अधिकार से अधिक सरल और नियम शर्तों की अपेक्षा कहीं अधिक सुगम है।
कोई महिला यदि अपने पति के व्यवहार , चरित्र , शारीरिक और यौन सुख से संतुष्ट नहीं, तो वह काज़ी को बुलाकर अपने पति से खुला ले सकती है , पति कुछ नहीं कर सकता।
महिला को ना तो इद्दत की अवधि पूरी करनी होती है और ना ही उसे किसी तरह की भरपाई करनी होती है। औरतों को यह हक केवल और केवल इस्लाम में है।
क्या है हलाला?
इस्लाम में निकाह एक इबादत है और साथ ही एक अनुबंध (Contract) है जब तक कि शादी के बाद दोनों का साथ में रहना मुमकिन न हो। क़ुरआन ने निकाह को निभाने के लिए कहा, क़ुरआन ने निकाह की इस प्रतिज्ञा को निभाने के लिए कहा, वे तुमसे दृढ़ प्रतिज्ञा भी ले चुकी है? (4:21)
निकाह की यह प्रतिज्ञा केवल यौन इच्छा को पूरा करने के लिए नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य जीवन में मानसिक शांति प्राप्त करना है।
और यह भी उसकी निशानियों में से है कि उसने तुम्हारी ही सहजाति से तुम्हारे लिए जोड़े पैदा किए, ताकि तुम उसके पास शान्ति प्राप्त करो।… (30:21)
पति-पत्नी एक-दूसरे के लिए कपड़ों की तरह होते हैं। वस्त्र सजावट का कार्य करते हैं और सुरक्षा प्रदान करते हैं, इसी तरह पति-पत्नी एक-दूसरे के श्रंगार हैं और एक-दूसरे को सुरक्षा प्रदान करते हैं।
वह तुम्हारे लिबास हैं और तुम उनका परिधान हो।… (2:187)
पैग़म्बर मुहम्मद ﷺ ने एक अच्छी पत्नी को सबसे बेशकीमती संपत्ति घोषित किया और तलाक़ के लिए उन्होंने कहा कि यह अल्लाह की नजर में अनुमत कृत्यों में सबसे घृणित है। कुरआन ने पुरुषों को अपनी पत्नी के साथ समायोजित करने की सलाह दी, भले ही वह उन्हें नापसंद हों (4:19) और पैग़म्बर मुहम्मद ﷺ ने पुरुषों को सलाह दी कि वे अपनी पत्नियों को उनके दुराचार के अलावा अन्य कारणों से तलाक न दें। (तबरानी)
उपरोक्त परिदृश्य का विकृत हलाला (Halala) की अवधारणा से कोई संबंध नहीं है। हलाला (Halala) की अवधारणा पर नीचे अलग से चर्चा की जा रही है।
हलाला (Halala)
क़ुरआन ने कहा, फिर यदि वह उसे तलाक़ दे दे (तीसरी बार),तो इसके पश्चात वह उसके लिए वैध न होगी,जबतक कि वह उसके अतिरिक्त किसी दूसरे पति से निकाह न कर ले। अतः यदि वह उसे तलाक़ दे दे तो फिर उन दोनों के लिए एक-दूसरे को पलट आने में कोई गुनाह न होगा, यदि वे समझते हो कि अल्लाह की सीमाओं पर क़ायम रह सकते है। और ये अल्लाह कि निर्धारित की हुई सीमाएँ है, जिन्हें वह उन लोगों के लिए बयान कर रहा है जो जानना चाहते हो (2:230)
एक आदमी दो तलाक़ के बाद अपनी पत्नी को दो बारा वापस ले सकता है और तीसरी बार तलाक़ देने बाद भी उसकी इद्दत की समाप्ति से पहले उसे वापस ले सकता है। लेकिन इसके बाद जब जुदाई बेबदल हो जाए, वह फिर अपनी पसंद के किसी अन्य व्यक्ति से शादी करने के लिए स्वतंत्र है। यदि फिर जीवन के सामान्य पाठ्यक्रम में उनके बीच एक विवाद पैदा होता है जिसके कारण उसके दूसरे पति से पहली तलाक़ हो जाती है, तो वह फिर से दूसरे पति सहित अपनी पसंद के किसी भी व्यक्ति से शादी करने के लिए स्वतंत्र है (पहले पति के साथ भी)। यहां प्रासंगिक बात यह है कि हलाला (Halala) की योजना पहले से नहीं बनाई जा सकती अगर वह ऐसा करती है। यहां प्रासंगिक बात यह है कि हलाला (Halala) की योजना पहले से नहीं बनाई जा सकती। अगर वह ऐसा करती है, तो यह दूसरे पति के साथ और पहले पति के साथ नाजायज संबंध होगा और साथ ही वह भी जिसके साथ वह पूर्व नियोजित हलाला के बाद रहने के लिए आई है। पैग़म्बर मुहम्मद ﷺ ने ऐसे दोनों पुरुषों पर लानत फ़रमाई है जो हलाला करते हैं और जिनके लिए हलाला किया जाता है। दूसरे ख़लीफ़ा हज़रत उमर ने अपनी ख़िलाफ़त के दौरान फैसला सुनाया कि जो लोग पूर्व नियोजित हलाला करते हैं उन्होंने पत्थर मार-मार कर मौत की सज़ा दी जाए। इमाम सूफ़ियान सौरी कहते हैं, अगर कोई हलाल करने के लिए किसी महिला से शादी करता है (उसके पूर्व पति के लिए) और फिर उसे पत्नी के रूप में रखना चाहता है उसे ऐसा करने की अनुमति नहीं है, जब तक कि वह नए सिरे से निकाह नहीं करता, क्यूंकि पिछला निकाह गैरकानूनी था (तिर्मिज़ी)
नियोग क्या है?
(ये भाग लिखने का उद्देश्य किसी के धार्मिक भावना को ठेस पहुचना नहीं बल्कि कुछ इस्लाम के दुश्मन है जो सोशल मीडिया पे इस्लाम को तलाक़ और हलाला आदि के विषय पे मजाक उड़ा रहे है उनके लिए खास है अगर आप उनमे से नहीं है तो ये भाग न पढ़ें।)
नियोग और नारी:-
‘सत्यार्थ प्रकाश’ के चतुर्थ समुल्लास के क्रम सं0 120 से 149 तक की सामग्री पुनर्विवाह और नियोग विषय से संबंधित है। लिखा है कि:
द्विजों यानी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णों में पुनर्विवाह कभी नहीं होने चाहिए। (4-121)
स्वामी जी ने पुनर्विवाह के कुछ दोष भी गिनाए हैं जैसे -
(1) पुनर्विवाह की अनुमति से जब चाहे पुरुष को स्त्री और स्त्री को पुरुष छोड़कर दूसरा विवाह कर सकते हैं।
(2) पत्नी की मृत्यु की स्थिति में अगर पुरुष दूसरा विवाह करता है तो पूर्व पत्नी के सामान आदि को लेकर और यदि पति की मृत्यु की स्थिति में स्त्री दूसरा विवाह करती है तो पूर्व पति के सामान आदि को लेकर कुटुम्ब वालों में झगड़ा होगा।
(3) यदि स्त्री और पुरुष दूसरा विवाह करते हैं तो उनका पतिव्रत और स्त्रीव्रत धर्म नष्ट हो जाएगा।
(4) विधवा स्त्री के साथ कोई कुंवारा पुरुष और विधुर पुरुष के साथ कोई कुंवारी कन्या विवाह न करेगी। अगर कोई ऐसा करता है तो यह अन्याय और अधर्म होगा। ऐसी स्थिति में पुरुष और स्त्री को नियोग की आवश्यकता होगी और यही धर्म है। (4-134)
किसी ने स्वामी जी से सवाल किया कि अगर स्त्री अथवा पुरुष में से किसी एक की मृत्यु हो जाती है और उनके कोई संतान भी नहीं है तब अगर पुनर्विवाह न हो तो उनका कुल नष्ट हो जाएगा। पुनर्विवाह न होने की स्थिति में व्यभिचार और गर्भपात आदि बहुत से दुष्ट कर्म होंगे। इसलिए पुनर्विवाह होना अच्छा है। (4-122)
जवाब दिया गया कि ऐसी स्थिति में स्त्री और पुरुष ब्रह्मचर्य में स्थित रहे और वंश परंपरा के लिए स्वजाति का लड़का गोद ले लें। इससे कुल भी चलेगा और व्यभिचार भी न होगा और अगर ब्रह्मचारी न रह सके तो नियोग से संतानोत्पत्ति कर ले। पुनर्विवाह कभी न करें। आइए अब देखते हैं कि ‘नियोग’ क्या है ?
अगर किसी पुरुष की स्त्री मर गई है और उसके कोई संतान नहीं है तो वह पुरुष किसी नियुक्त विधवा स्त्री से यौन संबंध स्थापित कर संतान उत्पन्न कर सकता है। गर्भ स्थिति के निश्चय हो जाने पर नियुक्त स्त्री और पुरुष के संबंध खत्म हो जाएंगे और नियुक्ता स्त्री दो-तीन वर्ष तक लड़के का पालन करके नियुक्त पुरुष को दे देगी। ऐसे एक विधवा स्त्री दो अपने लिए और दो-दो चार अन्य पुरुषों के लिए अर्थात कुल 10 पुत्र उत्पन्न कर सकती है। (यहाँ यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि यदि कन्या उत्पन्न होती है तो नियोग की क्या ‘शर्ते रहेगी ?) इसी प्रकार एक विधुर दो अपने लिए और दो-दो चार अन्य विधवाओं के लिए पुत्र उत्पन्न कर सकता है। ऐसे मिलकर 10-10 संतानोत्पत्ति की आज्ञा वेद में है।
इमां त्वमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां सुभगां कृणु।
दशास्यां पुत्राना धेहि पतिमेकादशं कृधि।
(ऋग्वेद 10-85-45)
भावार्थ: ‘‘हे वीर्य सेचन हार ‘शक्तिशाली वर! तू इस विवाहित स्त्री या विधवा स्त्रियों को श्रेष्ठ पुत्र और सौभाग्य युक्त कर। इस विवाहित स्त्री से दस पुत्र उत्पन्न कर और ग्यारहवीं स्त्री को मान। हे स्त्री! तू भी विवाहित पुरुष या नियुक्त पुरुषों से दस संतान उत्पन्न कर और ग्यारहवें पति को समझ।’’ (4-125)
वेद की आज्ञा है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णस्थ स्त्री और पुरुष दस से अधिक संतान उत्पन्न न करें, क्योंकि अधिक करने से संतान निर्बल, निर्बुद्धि और अल्पायु होती है। जैसा कि उक्त मंत्र से स्पष्ट है कि नियोग की व्यवस्था केवल विधवा और विधुर स्त्री और पुरुषों के लिए नहीं है बल्कि पति के जीते जी पत्नी और पत्नी के जीते जी पुरुष इसका भरपूर लाभ उठा सकते हैं। (4-143)
आ घा ता गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृराावन्नजामि।
उप बर्बृहि वृषभाय बाहुमन्यमिच्छस्व सुभगे पति मत्।
(ऋग्वेद 10-10-10)
भावार्थ ः ‘‘नपुंसक पति कहता है कि हे देवि! तू मुझ से संतानोत्पत्ति की आशा मत कर। हे सौभाग्यशालिनी! तू किसी वीर्यवान पुरुष के बाहु का सहारा ले। तू मुझ को छोड़कर अन्य पति की इच्छा कर।’’
इसी प्रकार संतानोत्पत्ति में असमर्थ स्त्री भी अपने पति महाशय को आज्ञा दे कि हे स्वामी! आप संतानोत्पत्ति की इच्छा मुझ से छोड़कर किसी दूसरी विधवा स्त्री से नियोग करके संतानोत्पत्ति कीजिए।
अगर किसी स्त्री का पति व्यापार आदि के लिए परदेश गया हो तो तीन वर्ष, विद्या के लिए गया हो तो छह वर्ष और अगर धर्म के लिए गया हो तो आठ वर्ष इंतजार कर वह स्त्री भी नियोग द्वारा संतान उत्पन्न कर सकती है। ऐसे ही कुछ नियम पुरुषों के लिए हैं कि अगर संतान न हो तो आठवें, संतान होकर मर जाए तो दसवें और कन्या ही हो तो ग्यारहवें वर्ष अन्य स्त्री से नियोग द्वारा संतान उत्पन्न कर सकता है। पुरुष अप्रिय बोलने वाली पत्नी को छोड़कर दूसरी स्त्री से नियोग का लाभ ले सकता है। ऐसा ही नियम स्त्री के लिए है। (4-145)
प्रश्न सं0 149 में लिखा है कि अगर स्त्री गर्भवती हो और पुरुष से न रहा जाए और पुरुष दीर्घरोगी हो और स्त्री से न रहा जाए तो ऐसी स्थिति में दोनों किसी से नियोग कर पुत्रोत्पत्ति कर ले, परन्तु वेश्यागमन अथवा व्यभिचार कभी न करें। (4-149)
लिखा है कि नियोग अपने वर्ण में अथवा उत्तम वर्ण और जाति में होना चाहिए। एक स्त्री 10 पुरुषों तक और एक पुरुष 10 स्त्रियों तक से नियोग कर सकता है। अगर कोई स्त्री अथवा पुरुष 10वें गर्भ से अधिक समागम करे तो कामी और निंदित होते हैं। (4-142) विवाहित पुरुष कुंवारी कन्या से और विवाहित स्त्री कुंवारे पुरुष से नियोग नहीं कर सकती।
पुनर्विवाह और नियोग से संबंधित कुछ नियम, कानून, ‘शर्ते और सिद्धांत आपने पढ़े जिनका प्रतिपादन स्वामी दयानंद ने किया है और जिनको कथित लेखक ने वेद, मनुस्मृति आदि ग्रंथों से सत्य, प्रमाणित और न्यायोचित भी साबित किया है। व्यावहारिक पुष्टि हेतु कुछ ऐतिहासिक प्रमाण भी कथित लेखक ने प्रस्तुत किए हैं और साथ-साथ नियोग की खूबियां भी बयान की हैं। इस कुप्रथा को धर्मानुकूल और न्यायोचित साबित करने के लिए लेखक ने बौद्धिकता और तार्किकता का भी सहारा लिया है। कथित सुधारक ने आज के वातावरण में भी पुनर्विवाह को दोषपूर्ण और नियोग को तर्कसंगत और उचित ठहराया है। आइए उक्त धारणा का तथ्यपरक विश्लेषण करते हैं।
ऊपर (4-134) में पुनर्विवाह के जो दोष स्वामी दयानंद ने गिनवाए हैं वे सभी हास्यास्पद, बचकाने और मूर्खतापूर्ण हैं। विद्वान लेखक ने जैसा लिखा है कि दूसरा विवाह करने से स्त्री का पतिव्रत धर्म और पुरुष का स्त्रीव्रत धर्म नष्ट हो जाता है परन्तु नियोग करने से दोनों का उक्त धर्म विशुद्ध और सुरक्षित रहता है। क्या यह तर्क मूर्खतापूर्ण नहीं है? आख़िर वह कैसा पतिव्रत धर्म है जो पुनर्विवाह करने से तो नष्ट और भ्रष्ट हो जाएगा और 10 गैर पुरुषों से यौन संबंध बनाने से सुरक्षित और निर्दोष रहेगा ?
अगर किसी पुरुष की पत्नी जीवित है और किसी कारण पुरुष संतान उत्पन्न करने में असमर्थ है तो इसका मतलब यह तो हरगिज़ नहीं है कि उस पुरुष में काम इच्छा ;ैमगनंस कमेपतम) नहीं है। अगर पुरुष के अन्दर काम इच्छा तो है मगर संतान उत्पन्न नहीं हो रही है और उसकी पत्नी संतान के लिए किसी अन्य पुरुष से नियोग करती है तो ऐसी स्थिति में पुरुष अपनी काम तृप्ति कहाँ और कैसे करेगा ? यहाँ यह भी विचारणीय है कि नियोग प्रथा में हर जगह पुत्रोत्पत्ति की बात कही गई है, जबकि जीव विज्ञान के अनुसार 50 प्रतिशत संभावना कन्या जन्म की होती है। कन्या उत्पन्न होने की स्थिति में नियोग के क्या नियम, कानून और ‘शर्ते होंगी, यह स्पष्ट नहीं किया गया है ?
जैसा कि स्वामी जी ने कहा है कि अगर किसी स्त्री के बार-बार कन्या ही उत्पन्न हो तो भी पुरुष नियोग द्वारा पुत्र उत्पन्न कर सकता है। यहाँ यह तथ्य विचारणीय है कि अगर किसी स्त्री के बार-बार कन्या ही उत्पन्न हो तो इसके लिए स्त्री नहीं, पुरुष जिम्मेदार है। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि मानव जाति में लिंग का निर्धारण नर द्वारा होता है न कि मादा द्वारा।
यह भी एक तथ्य है कि पुनर्विवाह के दोष और हानियाँ तथा नियोग के गुण और लाभ का उल्लेख केवल द्विज वर्णों, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के लिए किया गया है। चैथे वर्ण ‘शूद्र को छोड़ दिया गया है। क्या ‘शुद्रों के लिए नियोग की अनुमति नहीं है ? क्या ‘शूद्रों के लिए नियोग की व्यवस्था दोषपूर्ण और पाप है?
जैसा कि लिखा है कि अगर पत्नी अथवा पति अप्रिय बोले तो भी वे नियोग कर सकते हैं। अगर किसी पुरुष की पत्नी गर्भवती हो और पुरुष से न रहा जाए अथवा पति दीर्घरोगी हो और स्त्री से न रहा जाए तो दोनों कहीं उचित साथी देखकर नियोग कर सकते हैं। क्या यहाँ सारे नियमों और नैतिक मान्यताओं को लॉकअप में बन्द नहीं कर दिया गया है? क्या नियोग का मतलब स्वच्छंद यौन संबंधों ;ैमग थ्तमम) से नहीं है ? क्या इससे निम्न और घटिया किसी समाज की कल्पना की जा सकती है?
नियोग, नारी को भोग की वस्तु और नाश्ते की प्लेट बना दिया। नियोग प्रथा ने विधवा स्त्री को कतई वेश्या ही बना दिया। जैसा कि आप ऊपर पढ़ चुके हैं कि एक विधवा 10 पुरुषों से नियोग कर सकती है। यहाँ विधवा और वेश्या ‘शब्दों को एक अर्थ में ले लिया जाए तो ‘शायद अनुचित न होगा। विधवाओं की दुर्दशा को चित्रित करने वाली एक फिल्म ‘वाटर’ सन् 2000 में विवादों के कारण प्रतिबंधित कर दी गई थी, जिसमें ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर विधवाओं को वेश्याओं के रूप में दिखाया गया था। प्रायः विधवा स्त्रियाँ काशी, वृन्दावन आदि तीर्थस्थानों में आकर मंदिरों में भजन-कीर्तन करके और भीख मांगकर अपनी गुजर बसर करती थी, क्योंकि समाज में उनको अशुभ और अनिष्ट सूचक समझा जाता था।
‘सत्यार्थ प्रकाश’ में स्वामी जी ने भी इस दशा का वर्णन करते हुए लिखा है- ‘‘वृंदावन जब था तब था अब तो वेश्यावनवत्, लल्ला-लल्ली और गुरु-चेली आदि की लीला फैल रही है। (11-159), आज भी काशी में लगभग 16000 विधवाएं रहती हैं।
‘मनुस्मृति’ में विवाह के आठ प्रकार बताए गए हैं। (3-21)
इनमें आर्ष, आसुर और गान्धर्व विवाह को निकृष्ट बताया गया है मगर ऋषियों, मुनियों, तपस्वियों और मर्मज्ञों ने इनका भरपूर फायदा उठाया। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र, मुनि पराशर, कौरवों-पांडवों के पूर्वज ‘ाान्तनु, पाण्डु पुत्र अर्जुन और भीम आदि ने उक्त प्रकार के विवाहों की आड़ में नारी के साथ क्या किया? इसका वर्णन भारतीय ग्रंथों में मिलता है।
भारतीय ग्रंथों में नारी को किस रूप में दर्शाया गया है आइए अति संक्षेप में इस पर भी एक दृष्टि डाल लेते हैं।
1. ‘‘ढिठाई, अति ढिठाई और कटुवचन कहना, ये स्त्री के रूप हैं। जो जानकार हैं वह इन्हें ‘ाुद्ध करता है।’’
(ऋग्वेद, 10-85-36)
2. ‘‘सर्वगुण सम्पन्न नारी अधम पुरुष से हीन है।’’
(तैत्तिरीय संहिता, 6-5-8-2)
3. नारी जन्म से अपवित्र, पापी और मूर्ख है।’’ (रामचरितमानस)
उक्त तथ्यों के आधार पर भारतीय चिंतन में नारी की स्थिति और दशा का आकलन हम भली-भांति कर सकते हैं। भारतीय ग्रंथों में नारी की स्थिति दमन, दासता और भोग की वस्तु से अधिक दिखाई नहीं पड़ती। यहाँ यह भी विचारणीय है कि क्या आधुनिक भारतीय नारी चिंतकों की सोच अपने ग्रंथों से हटकर हो सकती है?
आइए भारतीय संस्कृति में नारी की दशा का आकलन करने के लिए छांदोग्य उपनिषद् के एक मुख्य प्रसंग पर भी दृष्टि डाल लेते हैं।
नाहमेतद्वेद तात यद्गोत्रस्त्वमसि, बह्वहं चरन्ती
परिचारिणी यौवने त्वामलमे साहमेतन्न वेद यद्
गोत्रत्वमसि, जाबाला तु नामाहमस्मि सत्यकामो नाम
त्वमसि स सत्यकाम एव जाबालो ब्रुवीथा इति।
(छांदोग्य उपनिषद् 4-4-2)
यह प्रसंग सत्यकाम का है। जिसकी माता का नाम जबाला था। सत्यकाम गौतम ऋषि के यहाँ विद्या सीखना चाहता था। जब वह घर से जाने लगा, तब उसने अपनी माँ से पूछा ‘‘माता मैं किस गोत्र का हूँ?’’ उसकी माँ ने उससे कहा, ‘‘बेटा मैं नहीं जानती तू किस गोत्र का है। अपनी युवावस्था में, जब मैं अपने पिता के घर आए हुए बहुत से अतिथियों की सेवा में रहती थी, उस समय तू मेरे गर्भ में आया था। मैं नहीं जानती तेरा गोत्र क्या है ? मेरा नाम जबाला है, तू सत्यकाम है, अपने को सत्यकाम जबाला बताना।’’
क्या उपरोक्त उद्धरणों से तथ्यात्मक रूप से यह बात साबित नहीं होती कि भारतीय चिंतन में नारी को न केवल निम्न और भोग की वस्तु बल्कि नाश्ते की प्लेट समझा गया है? -नियोग और नारी: लेखक सतिश चंद गुप्ता
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आज-कल हम देखते है अक्सर मीडिया, इस्लाम को बदनाम करने के लिए इस्लाम को ऐसे दिखाते है, जैसे इस्लाम धर्म औरतों को उनका अधिकार नहीं देता; जबकि पश्चिमी देशों में सबसे अधिक इस्लाम को स्वीकार करने वाली औरतें ही है। 80 औरतों की दास्ताँ इस्लाम अपनाने की PDF में डाउनलोड करें (डाउनलोड लिंक) फ़ाइल साइज़ 1 MB से कम
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