Reply-to-Pandit-Mahendra-Pal-Arya-Quran-Ayats
पाल जी की गलत फहमी का समाधान और 'कुरान की खूनी आयतें' कर के भी कुछ पाल जैसे लोग सोशल मीडिया पे पोस्ट कर रहे है उनको भी इस लेख में जवाब मिल जाएगा की क्या वाकई कुरान में खुनी आयते है? उन आयतों का संदर्भ क्या है? Quran aur Gair Muslim.

Quran aur Gair Muslim

उन्हें गलत फहमी है, कि कुरआन में गैर मुस्लिमों को जीने का हक नहीं और इसी शीर्षक से उनका उक्त वर्णित पत्रक भी है। हमने इस लेख के अंत में उनके पत्रक के शीर्षक वाले पृष्ठ को इस पुस्तक के पृष्ठ न. 45 पर दिया है। 


इस पत्रक में वह सबूत के तौर पर कुरआन की कुछ आयतें प्रस्तुत करते हैं। जिन आयतों पर उन को एतराज है हम उनको आगे नकल करेंगे परन्तु इस से पहले पाल जी से इन आयतों  के सम्बन्ध में कहना चाहेंगे के महाशय! आप तो (अपने दावे के अनुसार) सनद याफ्ता मौलवी हैं, तो यकीनन यह तो आप जानते ही होगे कि कुरआन की हर आयत का एक बैकग्राउंड या पस-ए-मंजर होता है जिसे कुरआन की इस्तिलाह में शान-ए-नज़ूल कहते हैं। जिसे जाने और समझे बिना कुरआन पर प्रश्न चिन्ह लगाना स्वंय पाल जी पर इस बात का प्रश्न खड़ा करता है कि क्या उन्हें यह मान लिया जाए। कि वह भूतकाल में महबूब अली थे या इस से भी बढ़कर मौलवी महबूब अली थे।

कुरआन का अवतरण लगभग 23 वर्षो में परिस्थिति के अनुसार हुआ वे आयतें जिन पर पाल जी को ऐतराज है वे नबुव्वत मिलने के दस वर्ष बाद, जब आप मक्का छोड़ कर मदीना चले गये उनका नुज़ूल तब आरम्भ हुआ और इस प्रकार की आयतें जो करीब डेढ़ दर्जन हैं वे लगभग 15 वर्षो की लम्बी अवधि में समय अनुसार नाज़िल हुईं। इसलिये कुरआन की एक-एक आयत को समझने के लिये हजरत मुहम्मद सल्लललाहु अलैहिवसल्लम की जीवनी को जानना  आवश्यक है। श्री पाल जी अगर अपने दावे के अनुसार पहले मौलवी महबूब अली थे, तो हम उन से यह कैसे आशा कर सकते है कि वह मुहम्मद सल्लललाहु अलैहिवसल्लम की जीवनी या कुरआनी आयतों के शान-ए-नुजूल से परिचित नहीं होंगे। परन्तु जो व्यक्ति हजरत मुहम्मद सल्लललाहु अलैहिवसल्लम की जीवनी व कुरआनी आयतों के शान-ए-नुजूल से परिचित होते हुये कुरआन की उक्त आयतों पर प्रश्न खड़ा करें। हम उसे अपने दिमाग का इलाज कराने की सलाह देंगे। यह केवल हमारा निर्णय नहीं। हम इसे पाठकों की अदालत में रखते  हैं। वे स्वयं समझें और निर्णय लें और पाल जी के हाल पर विलाप करें।

मुहम्मद सल्लललाहु अलैहि वसल्लम की जीवनी एक खुली किताब की मानिन्द है केवल मुसलमान ही नहीं अपितु कोई पढ़ा लिखा गैर मुस्लिम भी शायद ऐसा न होगा जो इस बात से परिचित न हो। कि मुहम्मद साहब मक्का नामक शहर में पैदा हुए थे और उन्होंने वहाँ पर इस्लाम धर्म का प्रचार शुरु किया तो मक्के वाले उनके शत्रु बन गये और उनको और उनके अनुयाइयों को यातनाएं देने लगे। यहां तक कि तीन वर्षों तक शत्रुपक्ष ने मुहम्मद सल्लललाहु अलैहि वसल्लम व उनके अनुयाइयों का पूर्ण रुप से बाइकाट भी किये रखा। जब यह यातनाएं बर्दाश्त से बाहर हो गईं तो, मुहम्मद साहब ने आपने अनुयाइयों को मक्का छोड़ कर कहीं और चले जाने की सलाह दी और जब एक दिन मक्के वालों ने यह तय किया कि आज रात को वे सब एक साथ मिलकर (नऊजु बिल्लाह) मुहम्मद साहब का वध कर देंगे तो उन्‍हों ने स्वयं भी अपना शहर छोड़ दिया और जब वह अपने एक साथी के साथ रात के समय घर से निकले और शहर से बाहर जाकर जब उन्होंने मदीने का रुख किया तो पीछे मुड़कर देखा और यह शब्द कहे, जो इतिहास में सुरक्षित हैं।
‘‘मेरे प्यारे वतन मक्के नगर! मुझे तुझ से बहुत प्यार है अगर तेरे वासी मुझे यहां रहने देते तो मैं तुझे कभी न छोड़ता।’’
और फिर आप मदीने की ओर चल निकले। यह बात नोट करने लायक है कि आप मक्का नगर छोड़ कर किसी करीबी स्थान पर नहीं रुके अपितु मक्के से करीब पांच सौ कि.मी. दूर मदीना शहर में जा कर निवास किया। मक्के वाले जो मुहम्मद साहब के घर का घेराव कर चुके थे जब उन्होंने देखा कि वे बच निकले हैं और उन के तमाम साथी मदीना पहुँच कर आराम से रहने लगे हैं तो उन्‍हों ने वहाँ भी मुसलमानों को तंग करने का प्रयास किया। अतः पहले उन्होंने मदीने वालों को आपके विरुद्ध उकसाना चाहा। इसमें कामयाब न हुए तो स्वयं लाव-लश्कर लेकर मदीने पर चढ़ाई के लिए निकल पड़े। मक्के वालों की मदीने पर पहली चढ़ाई में मक्के वालों की ओर से करीब सात सौ व्यक्तियों ने भाग लिया, जबकि मदीने में मुसलमानों की कुल संख्या उन से लगभग आधी थी। यहां से उन आयतों का अवतरण आरम्भ हुआ... जिनसे पाल जी के दिल की धड़कनें बढ़ गयीं।

यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि मक्के वालों ने मदीने पर तीन बड़े आक्रमण किये। पहला हिजरत से दूसरे वर्ष, दूसरा हिजरत से तीसरे वर्ष और तीसरा हिजरत के चौथे वर्ष, अतः कुरआन की निम्न आयतें जिन पर पाल जी ने ऐतराज किया है, वे भी स्थिति के अनुसार समय-समय पर नाज़िल होती रही हैं। यहाँ तक कि कुछ आयतें हिजरत से आठ-दस वर्ष बाद फतह मक्का के समय भी नाज़िल हुईं।

अब कुरआन की वे आयतें देखें:-

1.  जिन लोगों को मुकाबले के लिये मजबूर किया जा रहा है और उन पर जुल्म ढ़ाये जा रहे हैं अब उन्‍हें भी मुकाबले की इजाजत दी जाती है क्योंकि वह मजलूम हैं। यह इजाजत उन के लिये है जिन्‍हें  नाहक उनके घरों से निकाला गया। सिर्फ इस लिये कि वे कहते थे कि हमारा परवरदिगार अल्लाह है (सूरह हज 49)

2.  और उन से लड़ो जहां भी वे मिलें और उन्हें निकाल बाहर करो वहां से जहां से उन्होंने तुम्हें निकाला था औैर फितना बरपा करना कत्ल से भी बढ़ कर है और तुम उन से मस्जिद हराम के पास मत लड़ना जब तक वह तुम से न लड़ें। (सूरह बकर 119)

3. फिर अगर वह लोग बाज़ रहें तो बेशक अल्लाह बड़ा बख़्शने वाला मेहरबान है (सूरह बकर 192)

4.  क्या तुम नहीं लड़ोगे उनसे जिन्होंने सन्धि को तोड़ा और मुहम्मद साहब को निकाल बाहर करने के लिए तत्पर रहे, क्या तुम उन से डरते हो? अगर तुम इमान रखते हो तो ईश्वर इस बात का अधिक योग्य है कि तुम उस से डरो। लड़ो उन से ईश्वर तुम्हारे हाथों उन्हे दंड दिलवायेंगे उन्‍हें ज़लील करेंगे और तुम्हारी सहायता करेंगे- (सूरह तोबा, आयत 13, 14)

5.  हे नबी। इमान वालों को युद्ध करने के लिये आमादा करो यदि तुम में से बीस भी डटे रहने वाले होंगे तो वे 200 पर प्रभुत्व प्राप्त करेंगे, यदि सौ ऐसे होगें तो वे 4000 पर भारी रहेंगे (सूरह अनफाल, आयत 65)

हम इन आयतों के हवाले से पाल जी से कहना चाहेंगे कि पंडित महाश्य ज़रा इन कुरआन की आयतों का अन्दाज़-ए-ब्यान तो देखिये:-

1. और निकाल बाहर करो उन्हें वहां से जहां से उन्‍हों ने तुम्‍हें निकाला था, आप जानते है कि मक्के वालो ने मुहम्मद साहब और उन के साथियों को निकाला था, अतः ज़ाहिर है कि यह उसी के दृष्टिगत है तो पंडित पाल जी आपको क्या परेशानी हुई?

2. लड़ो उन से जिन्‍हों ने सन्धि को तोड़ा है।
इस्लामी इतिहास का एक मामूली विद्यार्थी भी इस बात को जानता है, कि सन सात हिजरी में मुहम्मद साहब और मक्के वालो के बीच एक सन्धी हुई थी जो मुसलमानो की ओर से बेहद दबकर की गई सन्धि थी। इसमें सारी बातें, सारी शर्तें, मक्के वालों की मानी गई थी। शर्तें  भी एक तरफा थीं। विस्तार से ब्यान करने का मौका नहीं परन्तु एक उदाहरण देखिये-उसमें मक्के वालों ने शर्त रखी थी कि अगर हमारा कोई आदमी मुसलमान बन कर आपके पास आता है तो आप को लौटाना होगा, परन्तु अगर तुम्हारा आदमी हमारे पास आता है तो हम उसे नहीं लौटाएंगे - इस प्रकार की करीब एक दर्जन शर्तें मक्के वालों की मुहम्मद साहब ने स्वीकार की थी और इस के बदले अपनी केवल एक शर्त मनवायी थी वह क्या थी उसे भी देखिए। मुहम्मद साहब ने मक्के वालों से केवल एक बात की गारंटी चाही थी। वह यह कि मक्के वाले मुसलमानों पर अगले दस सालों तक न तो कोई आक्रमण करेंगे न किसी आक्रमण करने वाले का साथ देंगे। लेकिन दुर्भाग्य से मक्के वालों ने इसका एक वर्ष तक भी निर्वहन नहीं किया। उक्त आयत में इसी सन्धी को तोड़ने का जिक्र है परन्तु पंडित पाल जी! आपने तो किसी सन्धी को नहीं तोड़ा है। फिर आपको क्यों चिंत्ता हो रही है?

जिस व्यक्ति के सामने कुरआन की आयतों के यह पसमंजर हों और फिर भी वह किसी आयत पर आपत्ति जताये, ऐसे व्यक्ति के बारे मे यही कहा जा सकता है; कि वह या तो एक समुदाए के लोगों को समुदाय विशेष के विरुद्ध भड़काकर अपने स्वार्थ की दुकान चलाना चाहता है और या उसका दिमागी तवाज़ुन बिगड़ चुका हैऔर या फिर उसने कुरआनी आयत के पसमन्ज़र को जाने बगैर उसका सरसरी अध्ययन किया है, परन्तु पंडित पाल तो मौलवी थे उनसे यह आशा कैसे करें। अतः स्पष्ट है कि पहली दो बातों में  से कोई एक उन पर लागू होती है।

आयत न. 2 और 3 को एक बार फिर पढ़िएः
यह आयतें पाल जी के पत्रक के पृष्ठ न. 5 पर अंकित की गयी हैं।
जब मुहम्मद साहब अपने हजारों साथियों के साथ हिजरत के दस्वें वर्ष मक्के में दाखिल हुये इस मौके पर कोई युद्ध नहीं हुआ ना ही मक्के वालों की ओर से कोई खास विरोध की स्थिति सामने आयी परन्तु आप उन आयतों की शब्दावली देखिये जो इस मौके पर नाज़िल हुयीं।

उन्‍हें वहाँ से निकाल दो जहाँ से उन्होंने तुम्‍हें निकाला था -
और तुम उन से मस्जिद-ए-हराम के पास मत लड़ना -
इस में मक्के वालों के लिये एक पैग़ाम था, कि अगर वे युद्ध न चाहें तो मस्जिद-ए-हराम में दाखिल हो जायें।
यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि यहाँ जिस मस्जिद में और उसके आस-पास लड़ने को मना किया जा रहा   है वह उस समय मक्के वालों के ही कबज़े में थी ।

अब इस मोके पर मुहम्मद साहब ने जो घोषनाएं की वह भी देखें: -
आप ने ऐलान कराया जो मस्जिद के पास चला जाये, उसे कुछ न कहा जाये जो अपने घर के दरवाजे बन्द  
 कर ले उसे न छेड़ा जाये और जो अबूसुफयान के घर में घुस जाये उसे कुछ न कहा जाये।

अबू सूफयान कौन थे?
मुहम्मद साहब व उनके साथियों से मक्के वालों के जितने भी युद्ध हुये हैं उन में से एक को छोड़ बाकी सभी की कमान अबू सुफयान के हाथ में रही है। क्या संसार का इतिहास कोई एक ऐसा उदाहरण पेश कर सकता है, कि जिस में शत्रु फौज के कमान्डर को यह सम्मान दिया गया हो कि अगर कोई उस के घर में घुस जाये तो उस की जान बच जायेगी???

यहाँ मैं एक विशेष बात कहना चाहूंगा ।
अकसर कहा जाता है कि मुसलमान बड़ा जज़बाती होता है, और वह अपने धर्म या धर्म प्रवर्तक के बारे में कुछ भी सुनने की सहनशीलता नहीं रखता। हाँ यह बात सही है परन्तु उसका कारण स्वभाविक है। जिसका धर्म प्रवर्तक ऐसा हो जैसा ऊपर बताया गया फिर भी कोई उस पर यह इलजा़म लगाये की उनके यहाँ गैर मुस्लिमों को जीने का हक़ नहीं तो अनुयाइयों का जज़बाती होना स्वाभाविक होता है।

श्री पंडित पाल जी ने सूरह अनफाल की आयत न. 65 का वर्णन किया है, जिसमें कहा गया है कि लड़ो उन से तुम्हारे बीस उनके दो सौ पर भारी रहेंगे और तुम्हारे सौ उनके चार हजार पर प्रभुत्व प्राप्त करेंगे। कुरआन में जहाँ यह आयत है वहीं दो आयतों के अन्तर पर निम्न आयतें भी है।
और अगर शत्रु (युद्ध के बीच) सुलह/सन्धि की ओर झुके तो तुम भी सुलह कर लेना और ईश्वर पर भरोसा करना वह सब कुछ सुनता और जानता है। यहाँ तक कि अगर उनका (शत्रु पक्ष) इरादा धोखे का हो (तो भी परवाह न करना) तुम्हारे लिए ईश्वर काफी है। (सूरह अनफाल आयत न. 61-62)

एक दूसरे स्थान पर कुरआन में आदेश है कि
सुलह करना (बहरहाल लड़ाई झगडे़ से) बेहतर है।  सूरह निसा 128

इस परिपेक्ष में  पंडित जी से पूछना चाहूंगा कि क्या इस्लाम और कुरआन पर उंगली उठाते हुए बिलकुल ही न सोचा? अरे भाई जो संविधान यहां तक सुलह पसन्द हो, कि वह अपने अनुयाइयों को आदेश करे कि अगर सुलह के नाम पर शत्रु पक्ष धोखा देने का इरादा रखता हो; तो भी तुम सुलह कर लेना क्योंकि शान्ति हर स्थिति में युद्ध से बेहतर है और जो संविधान धर्म के बारे में यह आदेश करे कि धर्म के सम्बन्ध में कोई जोर जबरदस्ती नहीं की जा सकती जो चाहे स्वीकार करे जो चाहे इन्कार करे। (सूरह बकर 256)
आप उसे यह इलजाम दें कि इस्लाम में गैर मुस्लिमों को जीने का हक़ नहीं? मैं तो आपके बारे में यही कह सकता हूं कि: शर्म आनी चाहिये नफरत के ऐसे पुजारियों को जो समाज के बीच नफरत का बीज बोकर उसके जहरीले फल शान्त समाज को खिलाना चाहते हैं।

बहरहाल पाल जी ने कुरआन को छोड़कर वैदिक धर्म को अपना लिया है तो आईए अब यह भी देखलें कि वेदों में गैर अनुयाइयों के बारे में क्या कहा गया है।

नम्बर 1
राजा प्रजा के पालने और बैरियों को मारने में उद्यत रहे - अथर्वेद 8-3-7

नम्बर 2
तुम बैरियों का धन और राज्य छीन लो - अथर्वेद 5-20-3

नम्बर 3
सज्जन पुरूष दुखदायी दुष्टों को निकालने में सदा प्रयत्न करे - अथर्वेद 12-2-16

नम्बर 4
है राजन प्रत्येक निंदक कष्ट देने वाले को पहुंच और मार डाल - अथर्वेद 20-74-7

नम्बर 5
तू वेद निंदक पुरूष को काट डाल, चीर डाल, फाड़ डाल, जला दे, फूंक दे, भष्म कर दे - अथर्वेद 5-12-62

नम्बर 6
वेद विरोधी दुराचारी पुरूष को न्याय व्यवस्था से जला कर भष्म कर दे - अथर्वेद 5-12-61

नम्बर 7
उस वेद विरोधी को काट डाल, उसकी खाल उतार ले, उसके मांस के टुकड़े को बोटी-बोटी कर दे, उसकी नसों को ऐंठ दे, उसकी हडिड़्यों को मसल डाल, उसकी मींग निकाल दे, उसके सब जोडों और अंगों को ढीला कर दे - अथर्वेद 12-5-65 से 71 तक

हम पाल जी को यह भी बता दें कि कुरआन के अनुसार शत्रु पक्ष से इस प्रकार के बरताओ की युद्ध क्षेत्र में भी अनुमति नहीं है।

यह तो वेदों की बात थी। गीता में एक पूरा अध्याय इसी विषय पर है। जिसमें श्री कृष्ण अर्जुन को युद्ध करने पर आमादा करते हैं। जबकि वह हथियार रख चुके थे परन्तु श्री कृष्ण ने उनसे कहा कि यह तो कायरता है तुम्हारा धर्म ही युद्ध करना है। युद्ध करो वरना अधर्म हो जाएगा तुम युद्ध में मारे गये तो स्वर्ग को प्राप्त होगे और अगर जीते तो दुनिया की दौलत पाओगे (मज़े की बात यह है कि कृष्ण जी जिन लोगों से युद्ध करने को कह रहे हैं उनके साथ स्वयं महाराज ने अपनी फौज खड़ी की हुई है) क्यों? क्या इसलिए कि जो भी जीते वही आभारी रहे?

नतीजा यह हुआ कि एक बड़ी भयानक जंग हुई जिसमें महाभारत के अनुसार एक अरब छियासठ करोड़ इन्सान मारे गए। मरने वालों में कुछ लोग कृष्ण जी के सेना के भी होंगे। अपने ही लोगों को अधर्मों की सफ में खड़ा करके मरवा डाला? यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि उक्त आयतों से संबन्धित इस्लामी जंगों में मारे जाने वालों की कुल संख्या दो सौ से अधिक नहीं है। और महाभारत में कुल कितने मारे गए यह अभी पढ़ा ही है।

और पंडित पाल जी! इस्लाम में तो केवल चंद आयतें ही युद्ध की प्रेरणा देती हैं वह भी कड़ी शर्तों के साथ केवल आत्मरक्षा में, मगर आपके यहां तो महाभारत और रामायण दो बड़ी धार्मिक इतिहास पुस्तकें ऐसी हैं जिनका आधार ही युद्ध है। और वेदों के मंत्र अलग रहे। इसे ही कहते हैं छाज बोले तो बोले, छलनी भी बोले। जिसमें बहत्तर छेद।

पाल जी के पत्रक का शीर्षक है ‘‘कुरआन में गैर मुस्लिमों को जीने का हक नहीं’’।
यह शीर्षक जिसने भी लिखा है वह कोई अनपढ़, नासमझ और इतिहास के ज्ञान से नाबलद व्यक्ति ही हो सकता है। इस प्रकार की बातें लिखने, सोचने और कहने वालों को क्या यह मालूम नहीं कि भारत में कुरआन के मानने वालों ने कई शताब्दियों तक अपने आहनी पंजों से हुकूमत की है फिर भी मुसलमान यहां पर एक छोटी सी अल्पसंख्यक कम्यूनिटी है, और पाल जी आप की मम्यूनिटी एक बहूसंख्यक वर्ग है। यह बात विचारणीय है कि अगर सैकड़ों साल कुरआन के मानने वालों ने यहां पर हुकूमत की है और आपके अनुसार कुरआन गैर मुस्लिमों को जीने का हक नहीं देता तो आप यह इल्जाम देने के लिए  कैसे बचे रह गए.....?

किसी ने सही कहा है:
मौक़ा मिला जो लम्हों का अहसान फरोश को।
सदियों में जो किया था वो अहसान ज़द पे है।।