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    Kya Ishwar Avtar Leta Hai?

    आज इस धरती पर कुछ लोग अवतार की कल्पना रखते हैं। यह कल्पना क्यों आई ? उसकी वास्तविकता क्या है? अवतार का सही अर्थ क्या होता है? इस्लाम इस सम्बन्ध में क्या कहता है? इस लेख में हम इन्हीं विंदुओं पर बात करेंगे।
    प्रिय मित्रो! आज ईश्वर का नाम अवश्य लेते हैं, उसकी पूजा भी करते हैं, परन्तु बड़े खेद की बात है कि उसे पहचानते बहुत कम लोग हैं। जी हाँ! ईश्वर की अज्ञानता के फलस्वरूप ही हम ईश्वर के नाम पर परस्पर झगड़ रहे हैं। वास्तव में यदि हम ईश्वर का सही ज्ञान प्राप्त कर लें तो हम सब एक हो जाएं। तो आइए! हम धार्मिक ग्रन्थों द्वारा अपने ईश्वर का सही ज्ञान प्राप्त करते हैं।


    Ishwar Kaun Hai? 


    ईश्वर अकेला सृष्टा, पालनहार, और शासक है। उसी ने पृथ्वी, आकाश, चंद्रमा, सूर्य, सितारे, मनुष्यों और प्रत्येक जीव जन्तुओं को पैदा किया, न उसे पाने पीने तथा सोने की आवश्यकता पड़ती है, न उसके पास वंश है, और न उसका कोई भागीदार है। उसी ईश्वर को हम परमात्मा, यहोवा, गाड और अल्लाह कहते हैं। पवित्र ग्रन्थ क़ुरआन ईश्वर का इस प्रकार परिचय कराता हैः [कहो! वह अल्लाह है, यकता है, अल्लाह सब से निरपेक्ष है, और सब उसके मुहताज हैं, न उसकी कोई संतान है, और न वह किसी की संतान, और कोई उसका समक्षक नहीं है।] सूरः न0 112
    इस सूरः में ईश्वर के पाँच मूल गुण बताए गए हैं
    (1)
    ईश्वर केवल एक है (2) उसको किसी की आवश्यकता नहीं पड़ती (3) उसकी कोई संतान नहीं (4) उसके पास माता पिता नहीं (5) उसका कोई भागीदार नहीं।

    और हिन्दु वेदान्त का ब्रहमसुत्र यह है- "एकम ब्रहम द्वीतीय नास्तेः नहे ता नास्ते किंचन।"
    «ईश्वर एक ही है दूसरा नहीं है, नही है, तनिक भी नहीं है।» और अर्थवेद (9/40) में है- "जो लोग झूठे अस्तित्व वाले देवी देवताओं की पूजा करते हैं वे (अंधा कर देने वाले) गहरे अंधकार में डूब जाते हैं। वह एक ही अच्छी पूजा करने योग्य है।"अब प्रश्न यह है कि क्या ईश्वर अवतार लेता है?
    बड़े दुख की बात है कि जिस ईश्वर का अभी परिचय कराया गया अवतार की आस्था उसका बटवारा कर दिया। अभी आपने पढ़ा कि ईश्वर का कोई भागीदार नहीं, न इसको किसी चीज़ की ज़रूरत पड़ती है तो आखिर उसे मानव रूप धारण करने की क्या ज़रूरत पड़ी। वास्तव में ईश्वर ने मानव का रूप कदापि नहीं लिया। ज़रा श्रीमद्-भागवतगीता (7/24) को उठा कर देखिए कैसे ऐसी आस्था रखने वालों को बुद्धिहीन की संज्ञा दी हैः
    अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम।।24।।
    "मैं अविनाशी, सर्वश्रेष्ठ औऱ सर्वशक्तिमान हूं। अपनी शक्ति से सम्पूर्ण संसार को चला रहा हूं, बुद्धिहीन लोग मुझे न जानने के कारण मनुष्य के समान शरीर धारण करने वाला मानते हैं।"
    और ऋग्वेद के टीकाकार आशोराम आर्य ऋग्वेद के मंडल1 सुक्त7 मंत्र 10 पर टीका करते हुए कहते हैं- "जो मनुष्य अनेक ईश्वर अथवा उसके अवतार मानता है वह सब से बड़ा मुर्ख है।"
    और यजुर्वेद 32/3 में इस प्रकार हैः न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महदयश।
    "जिस प्रभु का बड़ा प्रसिद्ध यश है उसकी कोई प्रतिमा नहीं है।"
    प्रिय मित्र! इन व्याख्याओं से क्या सिद्ध नहीं होता कि ईश्वर मानव रूप धारण नहीं करता। अब ज़रा धार्मिक पक्षपात से अलग हो कर स्वयं सोचें कि क्या ऐसे महान ईश्वर के सम्बन्ध में यह कल्पना की जा सकती है कि जब वह इनसानों के मार्ग दर्शन का संकल्प करे तो स्वयं ही अपने बनाए हुए किसी इनसान का वीर्य बन जाए, अपनी ही बनाई हुई किसी महिला के गर्भाशय की अंधेरी कोठरी में प्रवेश हो कर 9 महीना तक वहां क़ैद रहे और उत्पत्ति के विभिन्न चरणों से गुग़रता रहे, खून और गोश्त में मिल कर पलता बढ़ता रहे, फिर एस तंग स्थान से निकले, बाल्यावस्था से किशोरावस्था को पहुंचे, ज़रा दिल पर हाथ रख के मन से पूछें कि क्या यह कल्पना ईश्वर की महिमा को तुच्छ सिद्ध नहीं सिद्ध करती। इस से उसके ईश्वरत्व में बट्टा न लगेगा?
    एक दूसरे तरीक़े से सोचिए कि यदि आप से कोई कहे कि लंदन में हवा हवाई जहाज़ बन गई है तो ऐसा कहने वाले को आप तुरन्त मुर्ख और पागल कहेंगे क्योंकि हवा हवाई जहाज़ कदापि नहीं बन सकती, उसी प्रकार ईश्वर मनुष्य कभी नहीं बन सकता क्योंकि ईश्वर तथा मनुष्य के गुण भिन्न भिन्न हैं।
    यदी कोई कहे कि ईश्वर तो सर्वशक्तिमान है वह क्यों न मनुष्य का रूप धारण करे? तो इसका उत्तर यह है कि ऐसा कहना ईश्वर की महीमा को तुच्छ सिद्ध करना है। जो ईश्वर सम्पूर्ण संसार का सृष्टिकर्ता, स्वामी और शासक है, उसके समबन्ध में ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती कि वह मानव का मार्गदर्शन करना चाहे तो मानव रूप धारण कर ले।

    Manav Margdarshan Kaise?


    ईश्वर ने सर्वप्रथम विश्व के एक छोटे से कोने धरती पर मानव का एक जोड़ा पैदा किया जिनको आदम तथा हव्वा के नाम से जाना जाता है। उन्हीं दोनों पति- पत्नी से मनुष्य की उत्पत्ति का आरम्भ हुआ जिन को कुछ लोग मनु और शतरूपा कहते हैं तो कुछ लोग एडम और ईव जिनका विस्तार पूर्वक उल्लेख पवित्र ग्रन्थ क़ुरआन(230-38) तथा भविष्य पुराण प्रतिसर्ग पर्व खण्ड 1 अध्याय 4 और बाइबल उत्पत्ति (2/6-25) और दूसरे अनेक ग्रन्थों में किया गया है।
    जिस प्रकार एक कम्पनी कोई सामान बनाती है तो उसके प्रयोग करने का नियम भी बताती है इसी नियम के अंतर्गत ईश्वर ने जब मानव को पैदा किया तो उसका मार्ग-दर्शन भी किया ताकि मानव अपनी उत्पत्ति के उद्देश्य से अवगत रहे। ईश्वर ने मानव की रचना की तो उसकी प्रकृति में पूजा की भावना भी डाल दी, इसी प्राकृतिक नियम के अंतर्गत उसकी चेतना में पूजा की कल्पना पैदा होती है। इसके लिए मार्गदर्शन की आवश्यकता थी। अब प्रश्न यह है कि ईश्वर ने मार्गदर्शन किया तो कैसे? इसके लिए सब से पहले हम अवतार का सही परिभाषा बता देना चाहेंगे ताकि सत्य खुल कर सामने आ सके।

    Avtar Ka Sahi Arth


    तो लीजिए सर्वप्रथम अवतार का सही अर्थ जानिएः
    श्री राम शर्मा जी कल्किपुराण के 278 पृष्ठ पर अवतार की परिभाषा यूं करते हैं- " समाज की गिरी हुई दशा में उन्नति की ओर ले जाने वाला महामानव नेता।"
    अर्थात् मानव में से महान नेता जिनको ईश्वर मानव मार्गदर्शन हेतु चुनता है। उसी प्रकार डा0 एम0 0 श्री वास्तव अपनी पुस्तक हज़रत मुहम्मद और भारतीय धर्म ग्रन्थ पृष्ठ 5 में लिखते हैं- " अवतार का अर्थ यह कदापि नहीं है कि ईश्वर स्वयं धरती पर सशरीर आता है, बल्कि सच्चाई यह है कि वह अपने पैग़म्बर और अवतार भेजता है। "
    ज्ञात यह हुआ कि ईश्वर की ओर से ईश-ज्ञान लाने वाला मनुष्य ही होता है जिसे संस्कृत में अवतार, अंग्रेज़ी में प्राफ़ेट और अरबी में रसूल (संदेष्टा) कहते हैं।
    इस्लामी दृष्टिकोणः ईश्वर ने मानव मार्गदर्शन हेतु हर देश और हर युग में अनुमानतः 1,24000 ज्ञानियों को भेजा। पुराने ज़माने में उन ज्ञानियों का श्रृषि कहा जाता था। क़ुरआन उन्हें धर्म प्रचारक, रसूल, नबी अथवा पैग़म्बर कहता है। उन सारे संदेष्टाओं का संदेश यही रहा कि एक ईश्वर की पूजा की जाए तथा किसी अन्य की पूजा से बचा जाए। वह सामान्य मनुष्य में से होते थे, पर उच्च वंश तथा ऊंचे आचरण के होते थे, उनकी जीवनी पवित्र तथा शुद्ध होती थी। उनके पास ईश्वर का संदेश आकाशीय दुतों (angels) द्वारा आता था। तथा उनको प्रमाण के रूप में चमत्कारियाँ भी दी जाती थीं ताकि लोगों को उनकी बात पर विश्वास हो। जैसे ईसा (ईश्वर की उन पर शान्ति हो) एक संदेष्टा गुजरे हैं जो पैदाइशी अंधे की आँख पर हाथ फेरते तो ईश्वर की अनुमति से उसकी आँख ठीक हो जाती थी, मृतकों के शरीर पर हाथ रख देते तो ईश्वर की अनुमति से वह जीवित हो जाते थे। मूसा (ईश्वर की उन पर शान्ति हो) एक संदेष्टा गुज़रे हैं जो लाठी फेंकते तो सांप का रूप धारण कर तेली थी, समुद्र में लाठी मारी तो बीच समुद्र के बीच रास्ते बन गए।

    kyu duniya me alag alag dharm hai 


    जब इनसानों ने उनमें यह असाधारण गुण देख कर उन पर श्रृद्धा भरी नज़र डाला तो किसी समूह नें उन्हें भगवान बना लिया, किसी ने अवतार का सिद्धांत गढ़ लिया, जब कि किसी ने समझ लिया कि वह ईश्वर के पुत्र हैं हालांकि उन्होंने उसी के खण्डन और विरोध में अपना पूरा जीवन बिताया था।


    अन्तिम संदेश 

    इस प्रकार हर युग में संदेष्टा आते रहे और लोग अपने सवार्थ के लिए इनकी शिक्षाओं में परिवर्तन करते रहे। ईश्वर जो सम्पूर्ण संसार का स्वामी था उसकी इच्छा तो यह थी कि सारे मनुष्य के लिए एक ही संविधान हो, सारे लोगों को एक ईश्वर, एक संदेष्टा, तथा एक ग्रन्थ पर एकत्र कर दिया जाए परन्तु आरम्भ में ऐसा करना कठिन था क्योंकि लोग अलग अलग जातियों में बटे हुए थे, उनकी भाषायें अलग अलग थीं, एक दूसरे से मेल-मिलाप नहीं था, एक देश का दूसरे देश से सम्पर्क भी नहीं था। यातायात के साधन भी नहीं थे, और मानव बुद्धि भी सीमित थी। यहाँ तक कि जब सातवीं शताब्दी ईसवी में सामाजिक, भौतिक और सांसकृतिक उन्नति ने सम्पूर्ण जगत को इकाई बना दिया तो ईश्वर ने हर हर देश में अलग अलग संदेष्टा भेजने का क्रम बन्द करते हुए संसार के मध्य अरब के शहर मक्का में महामान्य हज़रत मुहम्मद ( ईश्वर की उन पर शान्ति हो) को संदेष्टा बनाया और उन पर ईश्वरीय संविधान के रूप में क़ुरआन का अवतरण किया। वह जगत गरू बनने वाले थे, समपूर्ण संसार के कल्यान के लिए आने वाले थे इसी लिए उनके आने की भविष्यवाणी प्रत्येक धार्मिक ग्रन्थों ने की थी, वही नराशंस तथा कल्कि अवतार हैं जिनकी आज हिन्दू समाज में प्रतीक्षा हो रही है। उनको किसी जाति तथा वंश के लिए नहीं बल्कि सम्पूर्ण संसार के लिए भेजा गया।

    इन व्याख्याओं से यह सिद्ध हो गया कि ईश्वर ने कभी अवतार नहीं लिया बल्कि उसने मानव में से संदेष्टाओं द्वारा मानव का मार्गदर्शन किया परन्तु मानव नें उनके चमत्कारों से प्रभावित हो कर उन्हीं को ईश्वर का रूप दे लिया और "ऊपर वाले ईश्वर" को भूल कर उन्हीं की पूजा करने लगे। इस प्रकार मानव के नाम से अलग अलग धर्म बन गया। हालाँकि ईश्वर का अवतरित किया हुआ धर्म शुरू से एक ही रहा और आज तक एक ही है। उसी को हम "इस्लाम" कहते हैं जिसे प्रत्येक संदेष्टा अपनी अपनी भाषा में उसका अनुवाद कर के बयान करते रहे। आज आवश्यतका है इसी सत्य को जानने की । हम सब पर ईश्वर की दया हो।